...............
1
मक्खनपुर से दिल्ली रेलवे स्टेशन तक
आखिर जिस बात की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी, वही हुई। गोलू घर से भाग गया।
गोलू के मम्मी-पापा, बड़ा भाई आशीष और दोनों दीदियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर हैरान हो गईं। रोते-रोते उसकी मम्मी का बुरा हाल हो गया। और वे बार-बार आँसू बहाते हुए कहती हैं, “मेरा गोलू ऐसा तो न था। जरूर यह किसी की शरात है, किसी ने उसे उलटी पट्टी पढ़ाई है। वरना...”
“वरना वह तो घर से स्कूल और स्कूल से घर के सिवा कोई और रास्ता जानता ही न था। घर पर बैठे-बैठे या तो किताब पढ़ता रहता था या फिर छत पर टहलता। थोड़ा-बहुत आसपास के दोस्तों के साथ खेल-कूद। गपशप। ज्यादा मेलजोल तो उसका किसी से था नहीं। लेकिन...पता नहीं, क्या उसके जी में आया, पता नहीं!” कुसुम दीदी कहतीं और देखते ही देखते मम्मी, कुसुम दीदी और सुजाता दीदी की आँखें एक साथ भीगने लगतीं। आस-पड़ोस के लोग जो दिलासा देने आए होते, वे भी टप-टप आँसू बहाने लगते।
गोलू था ही ऐसा प्यारा। शायद ही मोहल्ले में कोई बच्चा ऐसा हो जिससे उसका झगड़ा हुआ हो। मारपीट तो जैसे जानता ही नहीं था। कभी किसी ने आज तक उसकी शिकायत नहीं की थी। लेकिन आज...? कुछ ऐसा कर गया वह कि घर के ही नहीं, बाहर के लोग भी एकदम हक्के-बक्के से हैं।
शहर का कोई भी कोना-कुचोना न था जो उसके पापा ने न ढूँढ़ा हो। आशीष भैया ने दौड़कर शहर के मुख्य अखबार ‘प्रभात खबर’ और ‘साध्य समाचार’ में भी फोटो और सूचना छपा दी थी। उसमें सब लोगों से ‘प्रार्थना’ की गई थी कि अगर उन्हें गोलू कहीं मिले, तो उसे समझा-बुझाकर घर ले आएँ। उन्हें आने-जाने का खर्चा और इनाम भी दिया जाएगा।
इस बात को भी कोई हफ्ता भर तो हो ही गया, लेकिन गोलू का कुछ पता नहीं चला। थक-हारकर आशीष भैया इलाहाबाद चले गए, जहाँ मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई का उनका आखिरी साल था।
कुसुम दीदी रो-धोकर ससुराल चली गईं। आखिर वहाँ ढेरों काम-धाम छोड़कर वे आई थीं। फिर रोजाना स्कूल में पढ़ाने भी जाती थीं। भला कब तक छुट्टी लेकर बैठी रहें।
अलबत्ता मम्मी-पापा छाती पर पहाड़ जैसा बोझ लिए बैठे रहे। या फिर सुजाता दीदी जो एम.ए. करने के बाद अब रिसर्च कर रही थीं। लेकिन इन दिनों रिसर्च-विसर्च सब भूलकर या तो गोलू के दुख में कलपती रहतीं या फिर दुखी मम्मी-पापा को सहारा देतीं, जो बैठे-बैठे चुपचाप आँसू ही बहाते रहते थे। और फिर एकाएक फूट-फूटकर रो पड़ते, “गोलू, गोलू, गोलू...!” उनके रुदन से घर की दीवारें भी काँपने लगतीं।
तब सुजाता दीदी बड़ी मुश्किल से खुद को सँभालतीं। मम्मी-पापा को धीरज बँधातीं कि, “कहाँ जाएगा वो, आ जाएगा दो-चार दिन में! आप इतने क्यों परेशान हैं!...” और साथ ही घर के सारे काम-काज में जुटी रहतीं, क्योंकि मम्मी तो देखते ही देखते एकदम लाचार हो गई थीं।
“गोलू, मेरे लाल! क्या हुआ तुम्हें? किसी की याद नहीं आई, मेरी भी...? तुझे तो कितना लाड़ करती थी मैं। सब भूल गया? पता है, तेरे पीछे घर की क्या हालत है! आस-पड़ोस के लोग भी मजाक उड़ाते हैं!” कहकर मम्मी जोर से विलाप करने लगतीं। और कभी एकदम सख्त चेहरा बनाकर कहतीं, “चल-चल सुजाता, मरने दे। मुझे कौन-सी परवाह है उसकी! जब उसे नहीं, तो हमें क्या?” कहते-कहते फिर जोरों से रो पड़तीं।
सुजाता दीदी समझ जाती हैं कि मम्मी का गुस्सा असली नहीं, झूठा है। वे अंदर से व्याकुल, बहुत-बहुत व्याकुल हैं, जैसे छाती फटी जा रही हो।...लेकिन करें क्या? उनकी समझ में आ नहीं रहा।
गुस्से में मम्मी कई बार पापा से झगड़ चुकी थीं। बार-बार एक ही बात कहतीं, “मेरा नाजुक फूल-सा बेटा था, तुमने क्यों चाँटा मारा उसे? क्यों? तुम्हें अच्छी तरह मालूम है, न वो कोई गलत काम करता था, न बर्दाश्त करता था। फिर क्यों चाँटा मारा तुमने उसे? तुम्हीं उसे घर से बाहर निकालने के कसूरवार हो। तुम्हीं!”
सुनकर पापा का सिर लटक जाता और पूरा चेहरा काला पड़ जाता। रह-रहकर वे खुद ही पछता रहे थे। लेकिन मम्मी जब कहतीं, तो उनका दिल जैसे टुकड़े-टुकड़े होने लगता। मन होता, जैसे अपने गालों पर ही एक के बाद एक चाँटें जड़ दें।
तब सुजाता को बीच में दखल देना पड़ता। वह कहती, “रहने दो मम्मी, रहने दो! पापा वैसे ही दुखी हैं। फिर पापा ने एक चाँटा ही तो मारा था, इसमें ऐसी कौन-सी आफत आ गई। ठीक है, पापा को कुछ ज्यादा ही गुस्सा आ गया। पर माँ-बाप कभी-कभी मार भी देते हैं अपने बच्चों को उनके भले के लिए। इसका मतलब यह तो नहीं कि...”
इस पर मम्मी-पापा दोनों एक साथ सुजाता दीदी का चेहरा देखता रहते और फिर न जाने कब दोनों की एक साथ सिसकियाँ शुरू हो जातीं।